रविवार, 17 अगस्त 2014

साध्‍वी प्रज्ञा को लेकर यौन आकर्षण के चलते हुई संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्‍या


आरएसएस प्रचारक सुनील जोशी की 2007 में हुई हत्‍या की जांच कर रही राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मामले में सनसनीखेज खुलासा किया है। एनआईए का कहना है कि जोशी की हत्‍या की एक वजह साध्‍वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के प्रति उनका यौन आकर्षण हो सकता है। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्‍सप्रेस ने इस बारे में रिपोर्ट छापी है। रिपोर्ट के मुताबिक, जांच एजेंसी मामले में अगले हफ्ते चार्जशीट दाखिल करने वाली है और इसमें साध्‍वी का नाम बतौर आरोपी शामिल किया जा सकता है। मध्‍य प्रदेश की देवास पुलिस बतौर आरोपी इस मामले में साध्‍वी का नाम पहले ही दर्ज कर चुकी है। प्रज्ञा ठाकुर 2008 के मालेगांव बम धमाकों की भी आरोपी हैं।
 
जोशी को लेकर चिंतित थीं प्रज्ञा
एनआईए का दावा है कि जोशी का प्रज्ञा ठाकुर के प्रति यौन आकर्षण था और यह उनकी हत्‍या का एक वजह बना। उधर, प्रज्ञा को इस बात की चिंता थी कि आतंकवादी वारदात को अंजाम देने की लिए जो योजनाएं बनाई गई थीं, कहीं जोशी उनका खुलासा कर सकते थे। एनआईए मामले में जो चार्टशीट दाखिल करने वाली है उसमें इस बात का जिक्र हो सकता है कि अजमेर ब्‍लास्‍ट के बारे में जोशी द्वारा जानकारियों को सार्वजनिक करने से रोकने के लिए प्रज्ञा ने आनंदराज कटारिया को करीब 10 दिनों तक अपने घर में रखा था। गौरतलब है कि देवास पुलिस ने कटारिया को आरोपी बनाया था, लेकिन जोशी मर्डर मामले में एनआईए की अंतिम लिस्‍ट में उनका नाम शामिल नहीं किया गया था।
 
पांच लोगों को आरोपी बनाएगी एनआईए
जोशी मर्डर केस की जांच में 2011 के बाद तब बदलाव आया जब मालेगांव ब्‍लास्‍ट मामले में मध्‍य प्रदेश के महू में कुछ गिरफ्तारियां हुईं और देवास पुलिस ने पहली चार्जशीट दाखिल की। एनआईए गिरफ्तार किए गए चार लोगों- राजेंद्र चौधरी, लोकेश शर्मा, जीतेंद्र शर्मा (भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेता) और बलबीर सिंह को अब प्रज्ञा ठाकुर के साथ जोशी हत्‍याकांड मामले में आरोपी बनाएगी। जांच एजेंसी का दावा है कि राजेंद्र और लोकेश ने ही 29 दिसंबर 2007 की रात जोशी का कत्‍ल किया था। जीतेंद्र शर्मा ने इसके लिए पिस्‍तौल मुहैया कराई थी और बलबीर सिंह ने इसे छिपाया था।
 
रची जा रही थी हमले की साजिश
एनआई का यह भी दावा है कि लोकेश, राजेंद्र और जोशी एक बड़ी साजिश रच रहे थे और मुसलमानों को निशाना बनाकर ज्‍यादा से ज्‍यादा हमले करने की फिराक में थे।
संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्‍या 29 दिसंबर 2007 को कर दी गई थी।
 
सुनील जोशी आरएसएस के प्रचारक थे। जोशी पर समझौता एक्‍सप्रेस, मक्‍का मस्जिद और मालेगांव सहित करीब आठ बम धमाकों को अंजाम देने का आरोप था। मध्‍य प्रदेश के देवास में 29 दिसंबर 2007 की रात कथित तौर पर हिंदू संगठनों से जुड़े अपने ही लोगों ने उनकी हत्‍या कर दी थी। समझौता एक्‍सप्रेस बम धमाकों के आरोपी स्‍वामी असीमानंद के हवाले से मामले की जांच कर रही राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी ने कहा था कि इस ट्रेन ब्‍लास्‍ट को अंजाम देने में जोशी की अहम भूमिका थी। राजस्थान एटीएस के मुताबिक सुनील जोशी अजमेर धमाकों के प्रमुख सूत्रधार थे और वह इन धमाकों के आरोप में गिरफ़्तार स्वामी असीमानंद के सतत संपर्क में थे।
 
जोशी पर यह भी आरोप थे कि उन्‍हें बम बनाने में महारत हासिल थी और वह एक खतरनाक अपराधी थे। रिपोर्टों के मुताबिक, उन पर दोहरे हत्‍याकांड का आरोप था, लेकिन सरकारी संरक्षण की वजह से वह बचते रहे। उनका नाम सबसे पहले क‍थित तौर पर 2003 में इंदौर के निनामा हत्याकांड में आया था। गौरतलब है कि कांग्रेस नेता प्यार सिंह निनामा और उनके भतीजे दिनेश निनामा की इंदौर जिले के मानपुर खुर्दी स्थित उनके घर में कर दी गई थी। तब जोशी के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट भी निकला था।

शनिवार, 16 अगस्त 2014

क्षत्रपों का किला ममता शक्ति के सामने विध्वंश

 15 अगस्त विशेष

दिग्गी के अभेद किले को एक वार में किया नेस्तानाबूद
क्षत्रपों को खूब लड़ी मर्दानी की तर्ज पर चटाई धूल
राजगढ़ लोकसभा में चाचौंड़ा विधायक ममता मीणा ने भारी जीत दर्ज करके बनाया इतिहास

भोपाल।
बेशक 15 अगस्त के दिन हम आजाद हुए थे, लेकिन 1947 से अब तक महिला सशक्तिकरण के प्रयास किए जा रहे हैं। महिलाओं को अब तक कमजोर माना जाता है तो ऐसे में कुछ ऐसी महिलाएं भी रहीं हैं, जो केवल अपनी शक्ति और सामर्थ के कारण पहचान बना चुकीं हैं। इसी लिए आजादी की इस बेला पर हम ऐसी ही महिला की बात करेंगे, जिनने सही मायनों में रजबाड़ों के शासन का अंत कर दिया और तमाम कयासों को दरकिनार करते हुए जनता का राज कायम किया।
जहां छोटे राजा और बड़े राजा की तूती बोलती हो। विरोधी उम्मीदवार में इन क्षत्रपों का डर सिर चढ़कर बोलता हो। यहां तक कि विरोधी उम्मीदवारों को हाथ पकड़कर पोलिंग बूथ से बाहर निकाल देते हों। जब पूरे प्रदेश में उमा भारती की लहर चल रही थी, तब भी इस विधानसभा में भगवा नहीं लहरा सका था। जीहां, हम उस विधानसभा की बात कर रहे हैं जहां से कांग्रेज अजेय रही है। इसकी विधानसभा की सीमा पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के गृह नगर राघौगढ़ से सटी है। इस विधानसभा के बारे में कहा जाता था कि राजा अपने किसी भी कारिंदे को खड़ा कर दें, जीत निश्चित होती थी। ऐसी तमाम कहानियां चौपालों पर रोज सुनने मिलती थीं। लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक महिला झांसी की रानी की तर्ज पर चुनावी रण में शौर्य दिखाते हुए क्षत्रपों के गढ़ को पूरी तरह विध्वंस कर देगी। उस महिला का नाम है श्रीमती ममता रघुवीर सिंह मीणा। एक किसान की बेटी ने तमाम कयासों को दरकिनार करते हुए ऐतिहासिक मतो से इस विधानसभा से जीत हासिल की। जहां से मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह लगभग 20 हजार मतों से जीत सके थे, उस विधानसभा से इस किसान की बेटी ने 34901 मतों से विरोधी को शिकस्त दी। संभवत: कई दशकों में इतने भारी मतो से जीतने वाली ये इकलौती उम्मीदवार थीं। यहां बता दें कि यहां पहले बेशक जातीय समीकरण हावी रहते हों, लेकिन इस चुनाव में जातीय समीकरण की कोई जगह नहीं थी। क्योंकि कांग्रेस से जो उम्मीदवार थे वो कांग्रेस के कद्दावर विधायक शिवनारायण मीणा थे। अपने विरोधी से लगभग दोगुने मत प्राप्त करने वाली ममता मीणा ने हर मोर्चे पर कांग्रेस को शिकस्त दी।

-कभी महिला को नहीं मिली कमान
कांग्रेस हो या भाजपा। कभी भी किसी पार्टी ने महिला को कमान सौंपने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। 2008 के चुनाव में पहली बार भाजपा ने ममता मीणा को टिकट दिया। यहां बता दें कि भाजपा ने भी न तो उनका राजतिलक किया था और न ही उनके पुरखों की राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी बनाया था। बल्कि जिला पंचायत चुनाव में निर्दलीय अध्यक्ष बनने की कुव्वत को देखते हुए ममता मीणा को टिकिट दिया था। ममता मीणा के पहले चाचौंड़ा विधानसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार की हालत खासी खराब रहती थी। उम्मीदवार न तो धन बल से टिक पाता था और न ही बाहूबल से। वहीं किले की राजनीति के कारण पहले से ही उम्मीदवार की हालत खस्ता होती थी। ये सच है कि घर के विरोधियों की चालें सही से न समझने के कारण इन्हें मामूली अंतर से 2008 में परायज मिली थी, लेकिन शिकस्त के बाद एक खूंखार घायल योद्धा की तरह इनने 2013 में वापसी की। इनके शौर्य के आगे न तो भिरतघाती टिक सके और न ही विरोधी।

-लक्ष्मीबाई के बाद फिर मिली महिला से मात
इतिहास गवाह है कि लक्ष्मीबाई से ग्वालियर महाराजा को युद्ध में घूल चटा दी थी। उस समय अंग्रेजों के सहारे से भले ही उन्हें ग्वालियर का शासन मिला हो, लेकिन एक महिला की शक्ति के कारण उन्हें भागना पड़ा था। उसी इतिहास को ममता मीणा ने दोहराया था जिला पंचायत चुनाव के समय। जिला पंचायत अध्यक्ष बनने में भी इनने राजा-महाराजा के तमाम समीकरण फेल कर दिए थे। कांग्रेस के जिला पंचायत सदस्यों की संख्या अध्यक्ष बनने के लिए पर्याप्त थी। इन सदस्यों में कुछ राजा केे समर्थक थे तो कुछ ग्वालियर महाराजा के। लेकिन राजा-महाराजा की रस्साकस्सी में अपने राजनीतिक कौशल और नेतृत्व क्षमता दिखाते हुए इस किसान की बेटी ने अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाया और सफलता पूर्वक 5 साल तक किसानों की तकलीफ को दूर किया।

-शुरूआत से ही तीखे तेवर
जहां ममता मीणा के सामने राजनीति के चाणक्य और गुरू कहे जाने वाले राजनीतिज्ञ थे तो ममता मीणा ने राजनीति में कदम रखा था। न तो अनुभव और न ही उम्र। लेकिन धुरंधर को हमेशा मुंह की खानी पड़ी। कारण राजनीति की चालों की भले ही पूरी समझ न हो, लेकिन महिला के अंदर जो दूसरे के दुखों को दूर करने की क्षमता होती है वो शुरू से ही थी। उन्हें राजनीति नहीं करना थी, लोगों को क्षत्रपों के आतंक और पक्षपात से मुक्त करवाना था। न किसी का डर था और न मन में पद का लालच। ये अलग बात है कि बिना शक्ति के तो ईश्वर भी रक्षा नहीं कर सकते। तभी जिला पंचायत के बाद विधानसभा में तमाम पासें पलट दिए।
(श्री प्रमोद त्रिवेदी के ब्लॉग भूतझोलकिया से साभार)

दादा का विकल्प कहां से मिलेगा?

 *कांग्रेस-भाजपा के पास नहीं है संजय जगताप का विकल्प


नगर पालिका के चुनाव नजदीक हैं। ऐसे में कांग्रेस हो या भाजपा, जीतने वाले उम्मीदवारों पर चर्चा होना और उनमें जीतने की संभावनाएं तलाशना लाजमी है। हो सकता है कि समाचार प्रकाशित होने तक आरक्षण हो जाए और समीकरण बदल जाएं, लेकिन एक  बात तो तय है। वो है कांग्रेस और भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है दत्तु भैया का परिवार। इतिहास गवाह है चाहे दिग्विजय सिंह का प्रभाव रहा हो या भगवा गढ़, दत्तु भैया परिवार के सामने हमेशा चारों खाने चित्त हुआ है। कुछ दशकों पहले दत्तु भैया ने ताल ठोंककर निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर विजय हासिल की थी तो पिछले चुनाव में उनकी बहू श्रीमती सुनंदा संजय जगताप ने कांग्रेस-भाजपा के तमाम समीकरण उलट कर रख दिए थे। ऐसे में प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा के पास अपनी साख बचाने का एक ही विकल्प है संजय जगताप यानि दादा की ससम्मान घर वापसी। ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास उम्मीदवारों को टोटा हो, लेकिन दादा के सामने नगर पालिका चुनाव जीतने की ताकत किसी भी उम्मीदवार या मोदी-शिवराज फैक्टर में नहीं दिखती। इसका कारण ऐसा नहीं है कि दत्तु भैया का परिवार किसी राज घराने से संबंध रखता हो या किसी दूसरी दुनिया से आया हो। इसका कारण है राजनीतिक ईमानदारी और नेतृत्व की अपार क्षमता। नेतृत्व से तात्पर्य केवल अपने दल के लोगों से नहीं वरन् आम आदमी को साथ लेकर चलने से है। यही कारण है कि नगरपालिका के 18 वार्डों में भले ही 8 पार्षद कांग्रेस के हों, लेकिन क्षेत्र के विकास में दादा ने कभी बदले की भावना से काम नहीं किया। इतना ही नहीं एक परिवार के मुखिया की तरह राजनीतिक विरोधियों की गलतियों को भी दादा ने हमेशा नजरअंदाज किया। यही कारण है कि प्रदेश सहित राजगढ़-ब्यावरा में भी भगवा फहरा रहा है लेकिन ब्यावरा नगरपालिका अध्यक्ष की कुर्सी केे लिए राजधानी में बैठे शीर्ष नेतृत्व के पास भी विकल्प नजर नहीं आ रहा है।

-भाजपा के पास विकल्प
भाजपा और दत्तु भैया के परिवार का पुराना नाता है। दत्तु भैया के खून में भाजपा और भगवा बसते हैं। ये अलग बात है कि राजनीतिक भेदभाव के कारण इन्होंने पार्टी छोड़ी, लेकिन ये भी सच है कि एक बुलावे पर इनकी घर वापिसी भी हुई। ऐसे में अगर व्यक्तिगत रंजिश को भुला दिया जाए तो भाजपा के पास संजय जगताप से बेहतर विकल्प नहीं है। सबसे बड़ी बात भाजपा के नेता इनसे भितरघात करेंगे तो भी नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगें। लेकिन भाजपा और दादा के बीच सेतू का काम कौन करेगा? संगठन के पदाधिकारी और आरएसएस के लोग अगर ईमानदारी से चाहेंगे तो दादा की घर वापिसी संभव है।

कांग्रेस क्या कर सकती है?
अगर ब्यावरा नगरपालिका की बात की जा रही है तो स्वाभिक तौर पर कांग्रेस उम्मीदवार की बात भी करना उचित होगा। राजा का गढ़ टूट चुका है। कांग्रेस की स्थिति बेहतर भी नहीं कही जा सकती। लेकिन फिर भी कुछ उम्मीदवार ऐसे हैं जिनका पुराना रिकार्ड बेहतर रहा है। इसमें पूर्व अध्यक्ष दिलीप शिवहरे ही ऐसे उम्मीदवार हैं जो बहुत कम मतों से पराजित हुए। हलांकि कांग्रेसी खेमे की गुटबाजी उन्हें चित्त करती रही है। दिलीप शिवहरे कहते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर संजय दादा मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। राजनीतिक तौर पर अगर चुनाव में मौका मिलता है तो कड़ा लेकर स्वच्छ मुकाबला होगा। किसी भी उम्मीदवार से व्यक्तिगत रंजिश नहीं होती। चुनावी मैदान के बाद सभी पारिवारिक सदस्य होते हैं।

कमजोरी भी है दादा में 
ऐसा नहीं है कि दादा में कोई कमजोरी नहीं है। लेकिन उनका बड़प्पन तमाम कमजोरियों पर भारी पड़ता है। दादा की सबसे बड़ी कमजोरी है राजनीतिक विरोधियों को भी पनपने देना। पिछले पांच सालों का इतिहास उठाकर देखें तो दादा ने 18 पार्षदों को बराबर आगे बढऩे का मौका दिया। दादा से पहले अध्यक्ष की अनुमति के बिना नगर पालिका में पत्ता नहीं हिलता था लेकिन दादा के समय पार्षदों को अपने वार्ड की समस्या के लिए दादा की तरफ से फ्री हैंड रहा। ये पार्षद सक्षम होने के बाद अध्यक्ष पद की दावेदारी भी कर सकते हैं। दूसरी कमजोरी है लाव लश्कर तैयार नहीं करना। दादा के पास अपार जनसमर्थन भले ही हो, लेकिन जब वो भाजपा में थे तब भी उनके पास भाजपा संगठन के पदाधिकारियों का बड़ा खेमा नहीं था। खेमेबाजी में माहिर न होने के कारण पार्टी उन्हें नजरअंदाज करती रही और उन्हें मजबूरन निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में कूदना पड़ा।


ताकत भी कम नहीं
कमजोरी के बाद दादा की ताकत की बात करें तो वो है आम जनता से सीधा संवाद। हाईप्रोफाइल छवि को छोड़कर हमेशा एक ही तरह से रहना। दूसरी बात है विरोधियों का भी विरोध नहीं करना। इसका उदाहरण हैं कांग्रेसी पार्षद। तमाम कांग्रेसी पार्षद खुलकर कहते हैं कि अध्यक्ष पद के लिए दादा से अच्छा उम्मीदवार नहीं है। और अगर सीट सामान्य रही तो फिर से दादा ही अध्यक्ष बनेंगे। तीसरी ताकत है ईमानदारी। नगर पालिका को काजल की कोठरी कहा जाता है। इनके पहले के तमाम अध्यक्ष बेशक ईमानदार रहे होंगे, लेकिन उनकी पार्टी के लोगों ने ही कठघरे में खड़ा किया। लेकिन पिछले पांच सालों में एक बार भी दादा पर किसी तरह का आरोप नहीं लगा। चौथी बात है दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करना। बेशक दादा निर्दलीय अध्यक्ष थे लेकिन उनकी पृष्ठभूमि भगवा है। ऐसे में उन्हें भाजपा-कांग्रेस में भेदभाव करना चाहिए था। पूर्व अध्यक्षों ने तो भेदभाव खुलकर किया था। लेकिन दादा के समय में ऐसा नहीं हुआ।

क्या ऐसा रेल बजट कभी सुना है?

अच्छे दिन रहे हों या बुरे दिन। किसी भी पार्टी की सरकार रही हो। लेकिन क्या किसी को भी याद है कि ऐसा रेल बजट कभी पेश हुआ हो? संभवत: हर स्वतंत्र सोच वाले व्यक्ति का एक ही जबाव होगा- नहीं। लोकसभा में तो हमारे चुने गए माननीय बैठकर लाइव देख रहे थे और ताली ठोंक रहे थे, लेकिन बाकी लोगों ने टीवी और पेपर के माध्यम से बजट को पूरा समझा और पढ़ा। खूब मंथन किया। लेकिन एक बात बजट के कई दिनों बाद तक समझ नहीं आया कि रेल बजट में किसको क्या मिला? हम मान लें कि हमारे देश में जनरल टिकिट पर यात्रा करने वाले सबसे ज्यादा हैं तो उनका जरूर ध्यान रखा गया होगा? लेकिन जबाव एक ही है नहीं। चलिए गरीबों को छोडि़ए, बिजनेसमैन के लिए तो कुछ होगा ही, वो तो किराया भी खूब चुकाते हैं और टैक्स भी देते हैं। लेकिन यहां भी एक ही जबाव है नहीं। हो सकता है ट्रेनों में वेटिंग मैनेज करने के लिए कोई योजना आई हो, लेकिन यहां भी सरकार फिसड्डी।
अब आगे बढ़ते हैं और देखते हैं कि स्टेशन पर शायद सुविधाओं में तो कुछ इजाफा हुआ होगा तो फिर भी जबाव आता है- नहीं। तो फिर इस बजट में बुलेट ट्रेन के सपने के अलावा क्या है? हमने केवल कुछ प्रदेशों के मुखियाओं से दोस्ती निभाते हुए कुछ एक ट्रेनों की घोषणा तो मध्यप्रदेश जैसे प्रदेश से दुश्मनी निभाते हुए ठेंगा दिखाया है। माना कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह से मोदी जी की नहीं बनती, सुषमा स्वराज भी मोदी को खटकती हैं तो इसका मतलब मध्यप्रदेश को ट्रेन नहीं दी तो ठीक, इज्जत रखने के लिए कुछ घोषणाओं का झुंनझुना ही दे देते।
मतलब साफ है कि हम स्टेशन पर यात्री को साफ पीने का पानी भी नहीं दे पाए। जनरल के यात्रियों को जानवरों की तरह यात्रा करने की मजबूरी अभी भी रहेगी। जिस मॉडल स्टेशन अहमदाबाद की बात करते हैं, उस स्टेशन पर नलों में खारा पानी आता है। गर्मियों में नलों से उबलते पानी के समान गर्म पानी निकलता है। तो फिर हम किस विकास और बदलाव की बात सोचें। पैसेंजर ट्रेन में बैठने के बाद यात्रा पूरी होने की कोई गारंटी नहीं होती है। ट्रेन दुर्घटना के बाद जनरल यात्रियों को मुआवजा न देना पड़े, इसके लिए मृतकों की जेबों से टिकट निकाल लिया जाता है।
विश्व में मंदी का दौर है। विश्व के लगभग सभी देश मंदी से जूझ रहे हैं। लेकिन हिंदुस्तान न तो अमरिका की तरह हर बेरोजगार को 30 हजार रुपए महीना भत्ता देता है और न ही आंख बंद करके होम लोन देता है। अमरीका भले ही थोक में हजारों लोगों को नौकरी से निकाल देता हो, लेकिन हमारे देश में ऐसे हालात न कभी बने हैं और न ही बनने की संभावना दिखती है। ऐसे में हिंदुस्तान के हालात बेहतर कहे जा सकते हैं। खैर, फिलहाल हम रेल मंत्रालय की बात करें तो यह कमाने का जरिया नहीं है, बल्कि लोगों को आम सुविधा मुहैया कराने वाला स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी की तरह का एक विभाग है। इसमें न तो पहले कभी फायदे का गणित देखा गया और न ही अब देखा जाना चाहिए। फिर रेल मंत्रालय कंगाल या लखपति कहे जाने का सवाल ही नहीं उठता है। ऐसे में रेलमंत्री के बयान पर तरस ही आता है कि रेल मंत्रालय के पास पैसा नहीं है। ठीक है अगर रेल मंत्रालय के पास पैसा नहीं है तो फिर हमने बढ़ा-चढ़ाकर घोषणाएं कैसे कर दीं? हम पहले से चल रही टे्रनों को समय पर चला नहीं पा रहे हैं और बात करते हैं बुलेट ट्रेन की। हमारे पास अंग्रेजों के जमाने के रेल पुल हैं और कई ट्रेक इतने पुराने हो गए हैं कि टे्रेन रेंगने को मजबूर हो जाती हैं। कई क्षेत्रों में रेल लाइन नहीं हैं और कई क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां सिंगल लाइन से काम चला रहे हैं। ऐसे में हम बात करते हैं बुलेट ट्रेन की। ये सही है कि देश में विकास के लिए बुलेट ट्रेन चाहिए, लेकिन बुलेट ट्रेन के लिए ट्रेक कहां से आएगा। जाहिर है न तो ट्रेक होगा और न ही बुलेट टे्रन चलेगी। माना कि कभी विदेशी निवेश से बुलेट ट्रेन चलाने में सफल भी हो गए तो इसमें यात्रा कौन कर पाएगा? पूंजीपति या आम आदमी? वो आम लोग तो कतई यात्रा नहीं कर सकेंगे जो बमुश्किल जनरल का टिकिट खरीद पाते हैं।  जाहिर है केवल पूंजीपति और वो जनप्रतिनिधि जो सरकार के खर्चे पर यात्रा करते हैं। यानि आम आदमी के लिए कुछ भी नहीं। किराया तो हम पहले ही 14 फीसदी से ज्यादा बढ़ा चुके हैं, लेकिन स्टेशनों पर पीने के पानी की सुविधा भी नहीं दे सके।

अहमदाबाद कैसा मॉडल
बड़े जोर-शोर से कहा जा रहा है कि अहमदाबाद की तरह स्टेशनों पर सुविधाएं बढ़ाई जाएंगीं। लेकिन जो लोग अहमदाबाद स्टेशन देखकर आए हैं वे बता सकते हैं कि स्टेशन के पानी को पचाना हर किसी के बस की बात नहीं है। इस स्टेशन के नलों से पीने का पानी खारा निकलता है। साफ-सफाई से लेकर किसी भी क्षेत्र की बात की जाए तो आम स्टेशनों की तरह ही है। ऐसे मॉडल से विकास की बात करें तो फिर तो हो गया विकास।
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ऐसी कैसी दुश्मनी
कहते हैं कि राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होते। अब आडवाणी, सुषमा को ही ले लो। मजबूरन मोदी का नेतृत्व स्वीकारना ही पड़ा। लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की लोकप्रियता मोदी को गले नहीं उतर रही है। ऐसे में विदिशा सांसद सुषमा स्वराज भी मध्यप्रदेश से चुनकर आईं हैं, तो दुश्मनी पक्की वाली हो गई। यही कारण है कि रेल बजट में मध्यप्रदेश को पूरी तरह दरकिनार किया गया। इतने बुरे हालात तो यूपीए शासनकाल में भी नहीं रहे। दरअसल मोदी ने गुजरात में रिपीट होने के बाद पीएम पद का सपना देखा तो शिवराज ने ही देखा। ऐसे में संघ के समर्थन के कारण भले ही मोदी बाजी मार ले गए हों, लेकिन शिवराज से बदला लेने के लिए मध्यप्रदेश से पक्षपात की बात कुछ अजीब है। जनता की बात की जाए तो 29 में से 27 सीटें भाजपा की झोली में गईं। कम से कम जनता के वोटों का ध्यान तो रखना ही था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

व्यापमं घोटाला या शिवराज घोटाला या भाजपा घोटाला

पाइंटर:

अगर युवा भविष्य हैं तो मध्यप्रदेश का भविष्य हो गया बर्बाद
व्यापमं घोटाला- दो दशक पहले अंकुरित बीज एक दशक में वट वृक्ष बन गया
पीएमटी हो या सरकारी नौकरियां, लाखों होनहार युवाओं का भविष्य बर्बाद
बोफोर्स, टूजी, कोयला से भी बड़ा शिवराज (व्यापमं) घोटाला
युवा पुकार रहे- अन्ना अब तुम कहां हो, अब हमें भी विकल्प बता दो
इस घोटाले में भविष्य बर्बादी का आंकलन संभव नहीं है

इंट्रो:

किसान की 4 महीने की मेहनत की फसल देखकर हमारे सीएम रोने लगते हैं। उन्हें गले लगाते हैं।  मुआवजा देते हैं। लेकिन उनकी सरकार के व्यापमं घोटाले में लाखों छात्रों का पूरा जीवन बर्बाद हो गया। यहां फसल नहीं पूरा खेत ही तबाह हो गया। लेकिन न तो मुखिया की आंख में आंसू हैं और न ही उन परीक्षार्थियों को गले लगाया गया जिन्हें कड़ी मेहनत के बाद भी डॉक्टर बनने के लिए दाखिला नहीं मिला या कई सालों की मेहनत के बाद बेरोजगार रह गए। खुद को बचाने के चक्कर में सरकार ये भी भूल गई कि एक बार इनके जीवन बर्बादी का कुछ आंकलन तो करना चाहिए था। इनकी पीर (पीड़ा) कम करने का कोई तो रास्ता निकालना था। देश के इतिहास में न तो व्यापमं जैसा लाखों युवाएं के भविष्य को बर्बाद करने वाला घोटाला हुआ है न ही ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। 


भोपाल। पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य में इतनी गड़बडिय़ां-घोटालों के खुलासे हुए कि लोगों ने ज्यादा ध्यान देना ही बंद कर दिया। राजीव सरकार के बोफोर्स कांड की गूंज आज भी सुनाई देती है।
अटल सरकार में जब तहलका डॉट कॉम ने रक्षा घोटाले का खुलासा किया था तो बड़ा हंगामा हुआ था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण ने जब केवल एक लाख रुपए की रिश्वत ही बड़े मान से स्वीकार की थी तब भी लोगों को आश्चर्य हुआ था। इसके बाद कांग्रेस शासनकाल के टूजी, कॉमनवेल्थ गेम्स और कैग की मनमानी का कोयला घोटाला(कैग की मनमानी इसलिए क्योंकि अगर कोयला खदानें चालू होती तो इतना नुकसान होता यानि नुकसान या घोटाला होने से बच गया)। घोटाला कोई भी हो, देश का नुकसान तो होता ही है, लेकिन घोटाले की प्रकृति बताती है कि उससे सीधे तौर पर किसको नुकसान होता है। इन घोटालों की दो खासियत थीं। पहली- इनकी राशि हजारों करोड़ में आंकी गई। दूसरी-इनका आम आदमी की जिंदगी से सीधा कोई संबंध नहीं था। यानि आजाद भारत के किसी भी घोटाले से सीधे तौर पर आम आदमी का भविष्य बर्बाद नहीं हो सकता था।
लेकिन हमारे देश का एक ऐसा प्रदेश है जहां घोटाले की न तो रकम आंकी जा सकती और न ही गंभीरता। सबसे बड़ी बात है बर्बादी। तो इस घोटाले में रुपयों की नहीं भविष्य की बर्बादी हुई है। वो भविष्य भी देश के नौजवानों का, युवाओं का। दुर्भाग्य ये है कि ये घोटाला ऐसे प्रदेश में हुआ जो देश का हृदय स्थल कहा जाता है। यानि अपना मध्यप्रदेश। व्यवसायिक परीक्षा मंडल और नेताओं की मिली भगत का घोटाला। इससे डॉक्टर बनने का सपना देखने वाले और मेहनत की दम पर परीक्षा की तैयारी कर नौकरी हासिल करने वाले युवाओं का जीवन तबाह हो गया। इसके जिम्मेदार हैं हमारे प्रदेश के खेवनहार, जिन्हें हम दो दशक से सत्ता की बागडोर सौंपते चले आ रहे हैं। वो कांग्रेस के भी हैं और भाजपा के भी। कुछ नेता-अधिकारी गिरफ्तार हो गए तो कुछ छात्रों के साथ उनके अभिभावकों को भी पकड़ लिया गया। लेकिन 2009 से घोटाले को दबाने की कोशिश करने वाले नेताओं की गिरेबान पर हाथ डालने की आज भी किसी में हिम्मत नहीं है।

शुरूआत तो 20 साल पुरानी है
व्यापमं घोटाला भले ही 5 साल पहले से उजागर होना शुरू हुआ हो, लेकिन इसकी नींव तो करीबन दो दशक पहले कांग्रेस शासनकाल में रखी जा चुकी थी। ये बात अलग है कि उस समय इतनी सावधानी रखी जाती थी कि पकड़े न जाएं। दूसरी बात बड़ी रकम ली जाती थी लेकिन केवल रसूखदार अफसरों के माध्यम से। डेंटिस्ट डॉ. अनुराग साहू बताते हैं कि ऐसे छात्र पीएमटी में पास हो जाते थे तो 12 वीं में बमुश्किल पास हो सके हों। हमें बड़ा आश्चर्य होता था। हमारे जैसे सैंकड़ों छात्र कड़ी मेहनत के बाद भी पीएमटी में कम नंबर के कारण डेंटिस्ट या पशु चिकित्सक बने। जाहिर है कांग्रेस हर बात में कोर्ट जाती है लेकिन व्यापमं घोटाले में सीबीआई जांच के लिए कोर्ट नहीं गई। दिग्गी ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीस को पत्र तो लिखा, लेकिन एक साल बाद भी व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच के लिए कोई पत्र या याचिका नहीं लगा रहे हैं। ऐसा क्यों? परते जब उधड़ती हैं तो कई राज खुद व खुद बाहर आ जाते हैं। ये भी हो सकता है कि कई लोग 10 साल की नौकरी के बाद पकड़े जाएं। नीयत साफ किसी की भी नहीं है, इसीलिए आरोप केवल बयानों तक सीमित हैं।

एक कसम पहले भी खाई थी
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पूर्व राज्यसभा सांसद रघुनंदन शर्मा ने घोषणावीर कहा था। श्री चौहान का कसमे-वादों का इतिहास भी पुराना है। उन्होंने नर्मदा जल में कमर-कमर तक पानी में खड़े रहकर कसम खाई थी कि आजीवन कुंवारे रहकर प्रदेश की जनता की सेवा करेंगे। खैर नर्मदा का पानी बह गया तो कसम भी बह गई। लेकिन अभी  विधानसभा में भी एक कसम खा गए। अगर व्यापमं घोटाले में उनका या उनके परिवार का कोई भी सदस्य दोषी होगा तो वो सन्यास ले लेंगे। उनके मंत्री मण्डल परिवार का तो नहीं कहा होगा, वरना सन्यास हो गया होता। लेकिन जब हर बात में दागी होने का सबूत मांगते हैं तो अपनी ईमानदारी का भी सबूत दें। सीधे 20 साल की सीबीआई जांच और जांच एजेंसी को हर तरह से मदद। फिर पता चलेगा कि सन्यास का क्या हश्र होगा?

आखिर मिश्रा ने क्यों नहीं बचाया
डम्पर घोटाले को उजागर करने में जनसम्पर्क विभाग के एक अधिकारी की महती भूमिका थी। वो अधिकारी उस समय पूर्व उपमुख्यमंत्री दिवंगत श्रीमती जमुना देवी के स्टाफ में था। बाद में लक्ष्मीकांत शर्मा ने खनिज के मामले में उलझने पर इस अधिकारी को अपने स्टॉफ में पदस्थ किया। उस समय जमना देवी ने इस कर्मचारी के लिए रूठ कर सरकार को गाड़ी और स्टॉफ वापिस कर दिया था। इस अधिकारी ने अपने मीडिया में पाले गए गुर्गों के जरिए पहले खनिज मामले में छपने वाली खबरों के
मामले में राजीनामा करवाया और फिर इस अहसान का अहसास दिलाकर खूब दोहन किया। इस अधिकारी के बारे में बता दें कि ये बाबू से भर्ती हुआ और आईएएस अवार्ड के लिए इसका नाम राज्य सरकार ने भेजा था। ये अलग बात है कि मामला अभी पेंडिंग में है। व्यापमं घोटाले में जो खास बात उभरकर आ रही है वो है कि इस अधिकारी को लक्ष्मीकांत शर्मा के स्टाफ में शामिल होने के बाद भी इस घोटाले की भनक कैसे नहीं लगी? अगर भनक लगी भी तो फिर इस बार मंत्री की मदद क्यों नहीं कर पाया? और अगर मदद कर भी दी तो खुद का दामन कैसे बचाया? लक्ष्मीकांत शर्मा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इस अधिकारी ने अपना पाला बहुत पहले बदल लिया था।

युवा भविष्य का क्या हो सकता है मुआवजा?
सरकार के नुमाइंदों ने जो भी किया हो, लेकिन युवाओं के भविष्य बर्बादी पर पुख्ता कदम उठाने की आवश्यकता है। जब किसी दुर्घटना पर मुआवजा दिया जाता है तो भविष्य बर्बादी पर क्यों नहीं? ये सही है कि व्यापमं घोटाले की भरपाई कभी भी संभव नहीं होगी, लेकिन उस समय परीक्षा में बैठे और घोटालेबाजों के कारण पिछडऩे वाले युवाओं को नौकरी देने जैसा कदम उठाया जा सकता है। लेकिन ये उस समय हो पाएगा, जब सीएम खुद को बचाने में ताकत न लगाकर युवाओं के भविष्य पर फोकस करें।


युवा चाहते हैं इन सवालों का जबाव

पहला सवाल- यह सही है कि केंद्र के टूजी, कॉमनवेल्थ, कोयला घोटाले के लिए कांग्रेस सरकार, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी जिम्मेदार थीं तो व्यापमं घोटाले के लिए भाजपा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा, वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और सत्ता का कंट्रोलर संघ अपनी जिम्मेदारी से क्यों भाग रहे हैं। विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी सही सवाल दागने में चुप क्यों?
दूसरा सवाल- अगर सत्ता के मुखिया को घोटाले में किसी बात का डर नहीं था तो 2009 में जानकारी होने के बाद किसी सक्षम एजेंसी को जांच क्यों नहीं सौंपी? फिर से उसी व्यापमं में 2012 में बड़े स्तर पर गड़बड़ी का इंतजाम किया गया और फिर इंतजार दुश्मनों को ठिकाने लगाने का। 2014 तक किस बात का इंतजार किया? 2013 में जब सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों की संलिप्तता सामने आ गई तो सीधे सीबीआई जांच की मांग क्यों नहीं की गई। मतलब साफ था। पहले सबूत मिटाओ, फिर सीबीआई को जांच सौंपो। वहीं कांग्रेस के दिग्गी राजा तो हर बात पर सीबीआई जांच की पैरवी करते हैं तो शुरू से सीबीआई जांच के लिए
खुद की सरकार यानि केंद्र सरकार से अनुरोध क्यों नहीं किया? साफ बात है कि यहां शिवराज और दिग्विजय सिंह की अंदरूनी यारी थी।
तीसरा सवाल- अगर लक्ष्मीकांत शर्मा को दोषी माना गया था और केवल पीए के बयान और सूची भेजने से उन्हें गिरफ्तार किया गया तो पीए तो शिवराज सिंह चौहान का भी गिरफ्तार हुआ। फिर लक्ष्मीकांत दोषी तो सीएम कैसे निर्दोष?
चौथा सवाल- अगर लक्ष्मीकांत शुरू से दोषी थे तो उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? कोर्ट से उनके संबंध में आदेश लेने की प्रक्रिया क्यों अपनाई गई?
पांचवा सवाल- पिछले 10 सालों में जिन युवाओं का भविष्य बर्बाद हुआ, उनके लिए सरकार के पास कोई भी योजना क्यों नहीं? जो योग्य होने के बाद भी पीएमटी में चुने नहीं जा सके या जो योग्य होने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके, उनके भविष्य के मामले में भाजपा मौन क्यों?
छठवा सवाल-प्रदेश सरकार के अधीन जांच एजेंसी कैसे निष्पक्ष जांच कर सकती है? जब सीबीआई पर आरोप लग सकते हैं तो एसटीएफ के अधिकारियों को तो कम से कम 5 साल सरकार के साथ ही गुजारने हैं। ऐसे में निष्पक्ष जांच आयोग का गठन समय रहते क्यों नहीं किया गया?

सबसे बड़ा और अहम सवाल- अगर मंत्रीमंडल का मुखिया सीएम तो अपने मंत्रियों के घोटाले का जिम्मेदार कौन? अगर शिवराज बहुत भावुक हैं और किसान की एक साल की फसल बर्बाद होने पर रो पड़ते हैं, प्रकृति की नाइंसाफी पर आंसू बहाते हैं और मुआवजा की घोषणा करते हैं तो फिर उनके मंत्रियों और अधिकारियों की करतूत से युवाओं के पूरे जीवन बर्बाद होने पर कोई मुआवजा क्यों नहीं? युवाओं के भविष्य को बर्बाद करके उनके मां-बाप को तीर्थ कराने से कौन सा पाप धुलेगा।